मंगलवार, 19 जून 2012

वर्ना लोग क्‍या कहेंगे ???

तुम संवेदनशील हो
बहुत अच्‍छा है
हर कोई अपना मतलब सिद्ध
कर लेता है गाहे-बग़ाहे
तुम्‍हारी संवेदनाओं की छतरी में
बारिश से बचने के लिए
और चिलचिलाती धूप में
थोड़ी सी छांव के लिए
तुम आधे भीगने का आनंद लेकर
उसे पूरा सूखा रखते हो
जलती धूप में अपनी बांह की
कोहनी तक बहते पसीने में भी
उसे छांव के नीचे रहने का सुकून देते हो
...
लेकिन जब तुम्‍हारी बारी आती है तो
उसी सामने वाले को
चक्‍कर आने लगते हैं
गिरगिट की तरह रंग बदलकर
छतरी बंद कर देता है
और लाठी की तरह टेक बनाकर
तुम्‍हारे कांधे का सहारा लेकर
चलने लगता है
....
नहीं समझे !!! तुम्‍हें समझना आता ही नहीं
यही तो समस्‍या की जड़ है
तुम संवदेनशील लोगों की
जिन्‍हें अच्‍छाई का दाना खिलाया गया
संस्‍कारों का पानी पीकर तुम बड़े हुए
फिर भला कैसे तुम
संवेदनशील नहीं होते
तुम्‍हारा मन क्‍यूँ नहीं पसीज़ता
किसी को मुश्किल में देखकर
...
लेकिन सब बदल रहे हैं
तुम कब बदलोगे ?
थोड़ा तो ज़माने के साथ चलो
वर्ना लोग क्‍या कहेंगे ???

मंगलवार, 5 जून 2012

कितना फर्क होता है न ...

तुम्‍हारी खामोशी के बीच
सन्‍नाटा घुटनों के बल
चलते हुए जाने कब
अपने पैरों पे खड़ा हो गया
देख रहा था
आपनी पारखी नज़रों से
तुम्‍हारी मायूसी को
कभी तुम्‍हारी
खिलखिलाती हँसी ने
सन्‍नाटे को भी
मुस्‍कराहटों के संग साझा किया था 
....
सन्‍नाटे ने पहली बार
महसूस किया था
हँसी की मधुरता को
तभी तो आज फिर वह विचलित था
कौन है वो ऐसा
जिसने तुम्‍हें कैद कर लिया है
उदास चेहरे के पीछे
उसने देखा दीवारों को 
जिनसे रौनक गायब थी
बिल्‍कुल तुम्‍हारे चेहरे की तरह
कितना फर्क होता है न
खिलखिलाती हँसी और फीकी हँसी में
एक बोझिल सी
एक अल्‍हड़ नदी सी ...