हर कश्ती का ख्वाब होता है समन्दर,
पर हर कश्ती डरती है इक सुराख से ।
मानव तन पे अभिमान जीते जी कितना,
अंत होता तन का तो बन जाता राख ये ।
आस्था जो कि विश्वास का दूसरा रूप है, अब वह किसी के प्रति हो, चाहे ईश्वर के प्रति हो, माता-पिता के लिए हो, अपने गुरूजनों के लिए हो, मन में जाने कैसे इसके बीज अंकुरित हो जाते हैं जब से हम होश संभालने लायक होते हैं, आजकल तो नासमझ छोटे बच्चे भी जब देखते हैं कि हम अपने देवघर या पूजा के लिये बनाये गये अपने आस्था के छोटे से कोने में ईश्वर को नमन करते हैं तो वे भी अपने विवेक से वहां अपना शीष झुका लेते हैं, हमें उन्हें सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती और हम अपने बड़ों को देखते-देखते जाने कब आस्थावान हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता, जरूरी नहीं कि हम आस्तिक होंगे तभी आस्था हममें पनपेगी, क्योंकि नास्तिक के मन में भी किसी ना किसी के लिये श्रद्धा तो होती ही है वो भी किसी न किसी पर तो विश्वास करता ही चाहे उसका अंश कितना भी हो, परन्तु आस्था तो उसके भीतर है ही फिर चाहे वह ईश्वर के प्रति हो या अपने बड़े बुजुर्गों के प्रति वह आस्थावान तो है ही .....इस सृष्टि की रचना करने वाला कोई इंसान तो नहीं, धरती के सीने में किसान अन्न का एक दाना बोता है तो जाने कितने ही दाने उगते हैं इन दानों में छिपा कोई तो है प्रकृति कण-कण में हमें इस ओर इंगित करती रहती है कि कोई तो है जिस वजह से यह संसार चल रहा है, और यह एक परम सत्य है जो हमें आस्थावान बनाता है ....
हमारी आस्था किसमें है
उन संस्कारों में
जो हमें अपने बुजुर्गों से मिले हैं
या फिर
मन्दिर में रखी उन बेजान
पाषाण प्रतिमाओं में है
जो हमें
घोर निराशा के क्षणों में भी
अपने पास खींच ले जाती हैं
जिनमें हम महसूस करते हैं
ईश्वर का अंश
या कोई ऐसा जिसके
आगे श्रद्धान्वत होने को जी चाहे ।