उजड़ जाना ... या वीरान होना
इससे तुमने क्या सोचा
जरूर मैं किसी गुलशन की बात कर रही हूँ
नहीं .. नहीं ... वहां तो बहार
प्रकृति ले ही आती है बसंत
खिल उठते हैं फूल
झूम उठती हैं टहनियॉं
धरती को चूमने के लिए
फिज़ाओं में घुल जाती है खुश्बू
बागवां के चेहरे पे चमक अनोखी होती है
इन दिनों ... पर
मेरी आंखों में
वीरानी तो उस घर की है
जहां के बच्चे परदेस में बस गए
घर की सूनी दहलीज़ पे
ठहरती नज़रों को बस डाकिये का इन्तज़ार रहता
शायद भूले से बच्चो ने लिख भेजा हो कुछ
मां को नहीं आता मैसेज लिखना
नहीं कर पाती ई-मेल बच्चों को
ये सुविधाएं होकर भी न होने जैसे होती हैं
उसके लिए तो ...
मोबाइल पर ... जब घंटी बजती है तो
कई बार हरे की जगह वो लाल बटन दबा देती
और उसके बजने की आवाज भी बंद हो जाती
मन ही मन अपनी इस हरकत पर
खीझ उठती ...माँ
हर तरफ उदासी ही दिखती है उसे
दीवारों के रंग धुंधले नज़र आते हैं या उनमें भी
आंखों की उदासी उतर आई है
समझ नही पाती ....