मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

सुनहरी धूप ....


धूप सुनहरी कभी इतनी हो जाती कि उसकी चमक आंखों में समा जाती ऐसे कुछ दिखाई न देता चमक के सिवा सूरज इस समय अपनी चरम सीमा में होता, उसे देख पाना इन नाजुक निगाहों से कितना मुश्किल होता है, जैसे सफलता के पायदानों की अन्तिम सीढ़ी पर जब पैर पड़ता है तो कुछ लोगों को सब कुछ बौना दिखाई देता है वे सिर्फ सोचते हैं कि वे ही श्रेष्‍ठ कर्ता हैं, उन्‍होंने ही कर्म किया, बाकि सब नगण्‍य, बहुत फर्क होता है इस मानवी सोच के परे जाना, भूल जाते हैं वह सूरज अपनी इस चरम सीमा पर ऊर्जा देता है जीवन को जीने की, नहीं भूलता वह ढलना सांझ को, स्‍वर्णिम आभा बिखेरना शाम को, जब पक्षियों के लौटने का समय होता है तो शीतल बयार के बीच ढलता सूरज अपने प्रकाश से दिशा निर्देशित करता है ।

तकते हैं राह,

घर बैठे नन्‍हे छौने,

आएंगे दाना लेकर

उनके अपने ।

चोंच में प्रेम से

अन्‍न के कुछ दाने,

लाएंगे

उनके लिए

जिन्‍होंने सीखा नहीं

उड़ना ।

उनकी उड़ानों को भी

पर लग जाएंगे

एक दिन वे भी

दूर गगन में जाएंगे