सर्कस यह नाम शायद आने वाली पीढ़ी के लिये अपरचित हो जाएगा, बदलते दौर में करतबों की बाजीगरी अब मुश्किल हो चली है, जहां एक डेढ़ दशक पहले जिस शहर में सर्कस लगना होता था, इसके तम्बू व पण्डाल लगते ही लोग रूचि लेने लगते थे कि कब शुरू होगा, और अब इसका बिल्कुल उल्टा होने लगा है, अब सर्कस कम्पनी शहर में प्रवेश करते ही प्रचार-प्रसार करने लगती है कि दूर-दराज के लोग भी इसे देखने के लिये पहुंच सकें, किसी भी शहर में कम से कम अवधि इसकी एक माह होती है, 25-30 वाहनों के काफिले में इनका पूरा साजो-सामान पहुंचता है और फिर एक बड़ा तम्बू लगाकर इसका रिंग तैयार किया जाता है, जिसके चारों तरफ दर्शकों के बैठने की व्यवस्था रहती है। सर्कस में तरह-तरह के वन्य प्राणी भी रखे जाते हैं, जो दर्शकों का मनोरंजन करते हैं लेकिन आजकल कुछ वन्य प्राणियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है पहले शेर और हाथी इसका मुख्य आकर्षण हुआ करते थे, लेकिन अब शेर पर तो प्रतिबंध लगा दिया गया है जिसकी वजह से सर्कस पूरी तरह से इसमें शामिल सदस्यों पर ही निर्भर रह गया है जिसमें कई तरह के मंझे हुये कलाकार होते हैं जो अपनी कला से दर्शकों में एक रोमांच पैदा करते हैं लड़कियां भी इसमें अपने सधे हुये करतब दिखाती हैं, सर्कस खतरों से भरा हुआ एक ऐसा क्षेत्र है जहां जरा सा भी आप फिसले तो आपकी जिन्दगी के लेने देने पड़ सकते हैं, फिर भी इसमें जुड़े हुये कलाकार एक से बढ़कर एक कलाबाजियां दिखाते हैं कि आने वाले दर्शकों का मनोरंजन हो सके, लेकिन अब वह पुराने दिन लौटकर आने वाले नहीं लगते और सर्कस धीरे-धीरे गुमनामी के अंधेरे में खोता जा रहा है।
सर्कस के एक ग्रुप में करीब डेढ़ सौ लोग रहते हैं इनका प्रतिदिन का खर्च ही तीस हजार के ऊपर का होता है, पर्याप्त मात्रा में दर्शकों का न पहुंचना, इनके बन्द होने की स्थिति निर्मित कर रहा है, लोगों की रूचियों के बदलते भागम भाग एवं रोजमर्रा की बढ़ती जरूरतों के चलते पर्याप्त संख्या में दर्शकों के न मिल पाने से कई सर्कस तो पहले ही बन्द हो चुके हैं और जो गिने-चुने चल रहे हैं वह भी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, कब तक यह बदहाली की मार झेल पाते हैं कह पाना मुश्किल है ।
यह सत्य है समय के साथ साथ सर्कस अपना अस्तित्व खो रहा है .........
जवाब देंहटाएंवैसे भी सदा जी , इसकी मेंटिनेंस की लागत, पशुओ की दुर्दशा, कलाकारों की निजी परेशानिया सिनेमा इत्यादि सभी कारक इसके लिए जिम्मेदार भी है तो कुछ हद तक यह ठीक भी है !
जवाब देंहटाएंबहुत सही विषय उठाया आपने -सचमुच यह मनोरंजन अब बीते दिनों की बात होता जा रहा है !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी चिंता है, आज तमाशे होते हैं महानगरों में बोली के नाम पर धर्म के नाम पर और शहर के नाम पर।
जवाब देंहटाएंराजू बन गया 'दी एंग्री यंग मैन'
बाजारवाद में ढलता सदी का महानायक
वाकई, अब कहाँ देखने में आती है सर्कस. शायद मनोरंजन के दीगर साधनों की प्रभुता का परिणाम है.
जवाब देंहटाएंसदा जी मैं तो9 ये देख कर हैरान रह गयी कि मेरी सिर्फ चार टिप्पणिया क्या इतनी कम बार आयी हूँ ? माफी चाहती हूँ बहुत कुछ अच्छा पढने से छूट गया। सर्कस की मुझे भी बहुत याद आती है आज कल तो शायद लुप्त होने के कगार पर है। शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंविलुप्त हो रही कलाओं में अब सर्कस भी है. रोमांच का यह सफर कहाँ तक है?
जवाब देंहटाएंsach kh rhee hain.
जवाब देंहटाएंआपने बचपन याद दिला दिया.... हम सर्कस जाने की बहुत ज़िद किया करते थे.... पर अब तो भूल ही गए हैं यह शब्द.... सर्कस के अस्तित्व को बचाने के लिए सरकार को आगे आना चाहिए... बहुत सुंदर आलेख....
जवाब देंहटाएंमैं भी हैरान हूँ.... निर्मला मॉम की तरह.... मेरी भी सिर्फ छः टिप्पणियां.... माफ़ी चाहता हूँ.... जबकि मैं रेगुलर आता हूँ....
जवाब देंहटाएंमहफूज जी, निर्मला मां के साथ-साथ मैं आप सभी की शुक्रगुजार हूं जो आप उत्साहवर्धन करते हैं, मुझे लगता है इसकी गणना में कोई दोष है जिसकी वजह से यह सही संख्या प्रकट नहीं कर रहा है, इसके लिये मैं आप सभी से माफी चाहती हूं, साथ ही यह भी सोच रही हूं कि इसे हटा देना ही बेहतर होगा नहीं तो यह मेरे साथ-साथ आप सबको भी भ्रम में डालता रहेगा ।
जवाब देंहटाएंआभार के साथ धन्यवाद ।