मंगलवार, 16 जून 2009

ताज की सुन्‍दरता में उत्‍पन्‍न होते खतरे


भारत की शान ताजमहल जो कि विश्‍व के सात आश्‍चर्य में शामिल है जिसे एक नजर पास से देखने की चाहत भारत में रहने वाले ही नहीं विदेशियों के मन में भी बसी हुई है और वह इसे भारत आने पर देखने से नहीं चूकते, लेकिन इसकी शान में दाग लग रहा है इसके आस-पास का वातावरण इतना प्रदूषण युक्‍त हो जाता है चाहे वह तेल शोधक कारखाने के उठने वाले धुएं से हो या फिर शवदाह गृह के उठने वाले धुएं से ।

ताजमहल से लगभग सौ मीटर की दूरी पर ही दो-दो शवदाह गृह हैं, एक बिजली से चलने वाला है जबकि दूसरा पारम्‍परिक है, जिसमें लकड़ी से जलाकर अंतिम संस्‍कार किया जाता है, बिजली से चलने वाले शवदाह गृह का रखरखाव आगरा विकास प्राधिकरण के जिम्‍मेदारी में आता है, जबकि लकड़ी से शवों के अंतिम संस्‍कार जलाने का जिम्‍मा श्‍मशान घाट समिति के पास है ।

बिजली से चलने वाले शवदाह गृह की हालत इतनी खस्‍ता है जो कि ना होने के बराबर है, इसलिए यहां शवों को लकड़ी से ही जलाया जाता है, जिनके जलने पर उठने वाले धुएं, आग की लपटों और वायुमंडल में फैलने वाले इसके रसायनों से ताज महल की सुंदरता खत्‍म हो जाने की आशंका पैदा हो गई है । धुएं और आग से ताज को होने वाली क्षति से बचाने के लिये ही विद्युत शवदाह गृह का निर्माण कराया गया था, जो कि अब काफी लम्‍बे अर्से से खराब चल रहा है।

यदि आगरा विकास प्राधिकरण इसके लिये समय रहते सजग नहीं होगा तो ताज की सुन्‍दरता को कायम रखना मुश्किल होगा, उसे इस बात का भी ध्‍यान रखना चाहिए की ताजमहल के कारण ही आगरा का पर्यटन नगरी बनना संभव हो पाया, और यदि उस ताज की ही उपेक्षा की जाएगी, या उसके रखरखाव में ही पैसों का अभाव बताया जाएगा तो फिर ताज को सुरक्षित कैसे रखा जा सकेगा ।

ताजमहल की सुन्‍दरता के बचाव के लिये उत्‍तर प्रदेश सरकार और पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग को भी आगे आना चाहिए और इसके लिये सुरक्षात्‍मक प्रयासों में तेजी लानी चाहिए, ताकि ऐसे ऐतिहासिक स्‍मारकों को पूर्णतया सुरक्षा प्रदान की जा सके, आवश्‍यकता पड़ने पर जनसहयोग की भी मदद लेने से पीछे नहीं हटना चाहिये, ताकि यह धरोहर आने वाले समय में भी कायम रह सके, और इसकी सुन्‍दरता का बखान आगे भी यूं ही होता रहे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सचमुच पर्यावरण संरक्षण के लिए जिम्मेदार अधिकारी सिर्फ कागजी कार्रवाई ही अधिक करते हैं। "विनाश काले विपरीत बुद्धि" की कहावत है न!

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  2. दुख की बात है कि पर्यावरण के नाम पर
    सिर्फ लीपा-पोती ही होती है।

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